महाराष्ट्र में सियासत ने ऐसी करवट ली कि सरकार के साथ ही विधानसभा की भी तस्वीर बदल गई। सुबह जो अजित पवार महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता थे, शाम होते-होते महाराष्ट्र सरकार के डिप्टी सीएम बन चुके थे। सियासत की बिसात पर अपनी चाल, रणनीति से चौंकाते रहे मराठा छत्रप शरद पवार खुद चौंक गए। पवार के सामने अब उसी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के नाम और निशान को बचाने की चुनौती आ खड़ी हुई है जिसकी नींव खुद उन्होंने ही रखी थी।
कई राजनीतिक विश्लेषक यह कह रहे हैं कि जिस राजनीति को खेलने के लिए शरद पवार को जाना जाता था आज वहीं उनके भतीजे अजित पवार ने खुद शरद पवार के ऊपर खेल दिया। आइए आपको बतातें है कि शरद पवार ने कितनी बार अपने सहयोगी दलों को धोखा दिया या अलग हो गए।
1977 में आपातकाल के बाद कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो गई, ‘इंदिरा कांग्रेस’ और ‘रेड्डी कांग्रेस’। यशवंतराव के साथ, वसंतदादा पाटिल, शरद पवार सहित महाराष्ट्र के कई नेता ‘रेड्डी कांग्रेस’ में चले गए थे। 1978 में जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव हुए तो दोनों कांग्रेस अलग-अलग लड़ीं। जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन बहुमत से पीछे रह गई।
फिर दोनों कांग्रेस एक साथ आईं और इस गठबंधन सरकार के वसंतदादा पाटिल मुख्यमंत्री बने, जबकि नासिकराव तिरपुडे उपमुख्यमंत्री बने। लेकिन इस सरकार में कई नेता असहज थे। सरकार में विवाद बढ़ने लगे। अंत में शरद पवार 40 समर्थक विधायकों के साथ बाहर चले गए और साढ़े चार महीने में गठबंधन सरकार गिर गई। पवार की यह पहली बग़ावत थी।
छात्र राजनीति से अपनी यात्रा शुरू करने वाले शरद पवार ने गोवा मुक्ति आंदोलन में भी हिस्सा लिया था। उसी दौरान उन्होंने कांग्रेस पार्टी जॉइन किया और 1966 में कांग्रेस के टिकट पर पहली बार 27 साल के उम्र में राज्य विधानसभा में पहुंचने में कामयाब रहे और तब से लगातार उन्होंने राज्य और पार्टी में अपने प्रभाव का विस्तार किया। यह वो समय था कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी और बुजुर्ग सिंडिकेट नेताओं में शक्ति संघर्ष चल रहा था और कांग्रेस में दो फाड़ हो चुके थे।
उस वक्त शरद पवार इंदिरा गांधी के साथ न जाकर अपने राजनीतिक गुरु यशवंत राव चव्हाण के साथ कांग्रेस(आर) के साथ हो लिए। लेकिन कुछ ही समय बाद कांग्रेस(आर) से बगावत करके कांग्रेस सोशलिस्ट की स्थापना की और जनता पार्टी की मदद से मुख्यमंत्री बने।
नरसिम्हा राव सरकार के कार्यकाल पूरा होने के साथ ही कांग्रेस पार्टी सोनिया गांधी का दखल बढ़ता जा रहा था। 1999 में जब सोनिया गांधी को आधिकारिक रूप से कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने का निर्णय हो रहा तब एक बार फिर शरद पवार ने विद्रोह कर दिया। पीए संगमा और तारिक अनवर को साथ लेकर उन्होंने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को आकार दिया। इसी समय राज्य में विधानसभा के चुनाव होने थे, उक्त चुनाव में भी किसी को बहुमत नहीं मिल सका और एक बार फिर शरद पवार उसी कांग्रेस पार्टी के साथ सरकार में शामिल हो गए जिसके साथ अभी हाल में ही बगावत की थी।