3 मई 1999 से 26 जुलाई 1999… यह वही तारीख है जब भारतीय सेना ने जम्मू कश्मीर के करगिल में पाकिस्तानी सेना को हराया था। लेकिन इस युद्ध में भारत ने अपने 527 जवानों को खो दिया था। जबकि, 1363 जवान घायल हुए थे। भारतीय जवानों ने इस युद्ध में अपने खून का आखिरी कतरा देश की रक्षा के लिए न्यौछावर कर दिया था। इन जांबाजों के शौर्य की कहानियां आज भी हमें गर्व महसूस करवाती हैं।
चलिए जानते हैं भारतीय सेना के उन पांच जांबाज वीरों के बारे में जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए थे…
कैप्टन विक्रम बत्रा
कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर, 1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुआ. वह 13 जेएंडके राइफल में कैप्टन थे। 6 दिसंबर 1997 को इंडियन मिलिट्री अकादमी देहरादून से पासआउट होने के बाद विक्रम लेफ्टिनेंट के तौर पर सेना में भर्ती हुए। करगिल युद्ध के दौरान उनकी बटालियन 13 जम्मू एंड कश्मीर रायफल 6 जून को द्रास पहुंची।
19 जून को कैप्टन बत्रा को प्वाइंट 5140 को फिर से अपने कब्जे में लेने का निदेश मिला। ऊंचाई पर बैठे दुश्मन के लगातार हमलों के बावजूद उन्होंने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए और पोजीशन पर कब्जा किया। उनका अगला मिशन था 17,000 फीट की ऊंचाई पर प्वाइंट 4875 पर कब्जा करना। पाकिस्तानी सेना 16,000 फीट की ऊंचाई पर थी और बर्फ से ढकी चट्टानें 80 डिग्री के कोण पर तिरछी थीं।
7 जुलाई की रात वे और उनके सिपाहियों ने चढ़ाई शुरू की। उन्हें कोड नेम शेरशाह दिया गया था. दुश्मन खेमे में वह शेरशाह के नाम से मशहूर हो गए थे। एक जूनियर की मदद के लिए आगे आने पर दुश्मनों ने उन पर गोलियां चला दीं। विक्रम डरे नहीं। बल्कि, उन्होंने ग्रेनेड फेंककर पांच दुश्मनों को मार गिराया। लेकिन दुश्मन की एक गोली आकर सीधा विक्रम के सीने में जा लगी। जिससे वह शहीद हो गए।
लेकिन उनकी बदौलत अगली सुबह तक 4875 चोटी पर भारतीय सेना ने विजय हासिल कर ली. इसे विक्रम बत्रा टॉप नाम दिया गया। मरणोपरांत विक्रम को परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया। जह वो शहीद हुए उस समय वह केवल 24 साल के थे। उनकी बोली एक लाइन काफी फेमस भी है ‘ये दिल मांगे मोर’। बता दें, साल 2021 में कैप्टन विक्रम बत्रा पर बॉलीवुड की एक फिल्म भी बनी है, जिसका नाम ‘शेरशाह’ है।
कैप्टन अनुज नायर
कैप्टन अनुज नायर का जन्म 28 अगस्त, 1975 को दिल्ली में हुआ। वह जाट रेजिमेंट में कैप्टन थे। अनुज, इंडियन मिलिट्री अकादमी से पासआउट होने के बाद जून, 1997 में जाट रेजिमेंट की 17वीं बटालियन में भर्ती हुए। करगिल युद्ध के दौरान उनका पहला अभियान था प्वाइंट 4875 पर कब्जा करना। यह चोटी टाइगर हिल की पश्चिमी ओर थी और सामरिक लिहाज से बेहद जरूरी थी। इस पर कब्जा करना भारतीय सेना की प्रायोरिटी थी।
अभियान की शुरुआत में ही नायर के कंपनी कमांडर जख्मी हो गए. हमलावर दस्ते को दो भागों में बांटा गया। एक का नेतृत्व कैप्टन विक्रम बत्रा ने किया और दूसरे का कैप्टन अनुज ने। कैप्टन अनुज की टीम में सात सैनिक थे, जिनके साथ मिलकर उन्होंने दुश्मन पर चौतरफा वार किया।
कैप्टन अनुज ने अकेले 9 पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया और तीन दुश्मन बंकर ध्वस्त किए। चौथे बंकर पर हमला करते समय दुश्मन ने उनकी तरफ रॉकेट से चलने वाली ग्रेनेड फेंका जो सीधा उनपर गिरा। बुरी तरह जख्मी होने के बाद भी वे बचे हुए सैनिकों का नेतृत्व करते रहे। 7 जून को वह शहीद हो गए। लेकिन शहीद होने से पहले उन्होंने आखिरी बंकर को भी तबाह कर दिया। दो दिन बाद दुश्मन सेना ने फिर से चोटी पर हमला किया जिसका जवाब कैप्टन विक्रम बत्रा की टीम ने दिया। कैप्टन नायर को मरणोपरांत महावीर चक्र प्रदान किया गया. जब वह शहीद हुए, उस समय उनकी उम्र 24 साल थी।
कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय
कैप्टन मनोज कुमार पाण्डेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर में हुआ। वह 11 गोरखा राइफल की पहली बटालियन (1/11 जीआर) में कैप्टन थे। करगिल युद्ध के दौरान 11 जून 1999 को उन्होंने बटालिक सेक्टर से दुश्मन सैनिकों को खदेड़ दिया। उनके नेतृत्व में सैनिकों ने जुबार टॉप पर कब्जा किया। वहां दुश्मन की गोलीबारी के बीच भी आगे बढ़ते रहे. कंधे और पैर पर गोली लगने के बावजूद दुश्मन के पहले बंकर में घुसे।
हैंड-टू-हैंड कॉम्बैट में दो दुश्मनों को मार गिराया और पहला बंकर नष्ट कर दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना वे एक बंकर से दूसरे बंकर में हमला करते गए। उनके साथी सैनिक भी इसमें उनका पूरा सहयोग करते रहे।
वे जांबाजी से अगले 22 दिन तक दुश्मनों के छक्के छुड़ाते रहे। लेकिन आखिरी बंकर पर कब्जा करने तक वे बुरी तरह जख्मी हो चुके थे। जिस कारण वह 3 जुलाई 1999 को शहीद हो गए। बताया जाता है कि कैप्टन मनोज के आखिरी शब्द थे- ‘ना छोड़नूं’ (नेपाली भाषा में ‘उन्हें मत छोड़ना’)। कैप्टन मनोज की शहादत यूं ही बेकार नहीं गई। उन्हीं के कारण भारतीय सैनिकों ने खालूबार पर कब्जा किया गयाय इस अदम्य साहस के लिए उन्हें मरणोपरांत सेना का सर्वोच्च मेडल परम वीर चक्र प्रदान किया गया। उन्हें ‘हीरो ऑफ बटालिक’ भी कहा जाता है। पाण्डेय जब शहीद हुए तो उस समय वह महज 24 साल के थे।
मेजर राजेश सिंह अधिकारी
मेजर राजेश सिंह अधिकारी का जन्म 25 दिसंबर, 1970 को उत्तराखंड के नैनीताल में हुआ। वह 18 ग्रेनेडियर्स यूटिन में मेजर थे. 11 दिसंबर, 1993 को इंडियन मिलिट्री अकादमी देहरादून से पासआउट होकर वह सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान मैकेनाइज्ड इन्फैंट्री के मेजर राजेश सिंह अधिकारी को तोलोलिंग से पाकिस्तानी घुसपैठियों को भगाने की जिम्मेदारी दी गई।
14 मई 1999 को मेजर राजेश अधिकारी ने 10 सदस्यों वाली तीन टीम को तैयार किया और पाकिस्तान के घुसपैठियों को भगाने की योजना बनाई। वह अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपनी कंपनी का नेतृत्व कर रहे थे। यूनिवर्सल मशीन गन के साथ, उन्होंने दुश्मनों को उनकी स्थिति से कमजोर करते हुए उन्हें बाहर निकाल दिया। उन्होंने तुरंत रॉकेट लॉन्चर टुकड़ी को दुश्मन की स्थिति में शामिल होने का निर्देश दिया और बिना प्रतीक्षा किए स्थिति में पहुंचे और करीब-चौथाई लड़ाई में दुश्मन के दो कर्मियों को मार डाला।
अधिकारी ने अपनी सूझबूझ से अपनी मध्यम मशीन गन टुकड़ी को आदेश दिया कि वह चट्टानी विशेषता के पीछे की स्थिति को संभाले और दुश्मन को उलझाए रखे। लड़ाई के दौरान, अधिकारी गोलियों से घायल हो गये लेकिन उन्होंने सबयूनिट को निर्देशित करना जारी रखा और दूसरे दुश्मन की स्थिति पर कब्जा कर करके उन्हें पछाड़ दिया। तोलोलिंग में दूसरे स्थान पर भी कब्जा करते हुए प्वाइंट 4590 पर भी भारत ने कब्जा कर लिया। हालांकि, 30 मई 1999 को मेजर राजेश सिंह अधिकारी ने दम तोड़ दिया। उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया, जो युद्ध के मैदान में बहादुरी के लिए दूसरा सर्वोच्च भारतीय सैन्य सम्मान है। जब वह शहीद हुए तो उस समय महज 28 साल के थे।
स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा
स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा का जन्म 22 मई, 1963 को राजस्थान के कोटा में हुआ। वह गोल्डन ऐरोज, स्क्वाड्रन नंबर 17 यूनिट में अफसर थे। नेशनल डिफेंस एकेडमी खड़कवासला से पासआउट होने के बाद 14 जून, 1985 को फाइटर पायलट के तौर पर भारतीय वायु सेना में भर्ती हुए। करगिल युद्ध के दौरान नियंत्रण रेखा के इस तरफ की स्थिति का जायजा लेने के लिए ऑपरेशन सफेद सागर लांच किया गया। इसमें शामिल फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता के मिग-27एल विमान के इंजन में आग लगने के बाद वह उसमें से बाहर कूदे।
स्क्वाड्रन लीडर आहूजा अपने मिग-21एमएफ विमान में दुश्मन की पोजीशन के ऊपर उड़ान भरते रहे ताकि बचाव दल को नचिकेता की लोकेशन की जानकारी देते रहे। उन्हें अच्छी तरह पता था कि दुश्मन कभी भी उन पर सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल दाग सकता है। और ऐसा हुआ भी। कुछ ही देर में उनके विमान पर एमआइएम-92 स्ट्रिंगर से वार हुआ। वे अपने विमान से बाहर कूदे। अब वायु सेना को एक नहीं दो बचाव अभियानों को अंजाम देना था। लेकिन वायु सेना को उनकी लोकेशन की जानकारी नहीं मिली। पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें बंदी बनाकर 7 मई 1999 को बेरहमी से उनकी हत्या कर दी। उनके पार्थिव शरीर पर कई गंभीर घावों के निशान दिखे। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया। जब वह शहीद हुए उस समय वह महज 36 साल के थे।