नितेश दूबे
देश में इस वक्त कोरोना का काल चल रहा है। लेकिन इसी बीच महाराष्ट्र में सियासी उठापटक की भी स्थिति बनी थी। जी हां नवंबर में जोड़ तोड़ के साथ उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र में सरकार बनाई अपने गठबंधन के विरुद्ध जाकर और शिवसेना एनसीपी और कांग्रेस का गठबंधन बनाया और उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने। चुनाव के पहले बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन था जबकि कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन था। लेकिन चुनाव के बाद बीजेपी और शिवसेना गठबंधन को जनता ने प्रचंड बहुमत दिया लेकिन शिवसेना ने गठबंधन धर्म का पालन ना निभाते हुए और मुख्यमंत्री का पद पाने के बाद कांग्रेस और एनसीपी के साथ जाने का फैसला कर लिया। इसके बाद महाराष्ट्र में बीजेपी को विपक्ष में बैठना पड़ा था।
नहीं थे किसी सदन के सदस्य
आपको बता दें कि जब शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ जाने का फैसला किया और उद्धव ठाकरे उसके बाद मुख्यमंत्री बने। लेकिन उद्धव ठाकरे किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। नियम अनुसार जो भी व्यक्ति मुख्यमंत्री बनता है उसे 6 महीने के अंदर विधानसभा और विधान परिषद का सदस्य बनना अनिवार्य होता है। उद्धव ठाकरे ने 28 नवंबर को सीएम पद की शपथ ली थी और 28 मई को उनका 6 महीने का कार्यकाल पूरा हो रहा था। लेकिन मार्च तक उन्होंने विधानसभा परिषद का पर्चा नहीं भरा और देश में 24 मार्च के बाद लॉक डाउन शुरू हो गया। इस दौरान इलेक्शन कमीशन ने फैसला लिया कि देश में अनिश्चितकालीन तक आने वाले सभी चुनाव को स्थगित किया जाता है। लेकिन अप्रैल के मध्य तक महाराष्ट्र में सियासी उठापटक की खबरें तेज होने लगी।
बात यह थी कि 28 मई को ही उद्धव ठाकरे का सीएम का 6 महीने का कार्यकाल पूरा होने वाला था और इस दौरान किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे नियम अनुसार अगर वह किसी भी सदस्य ने इस्तीफा देना पड़ता। इसके बाद मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने भगतसिंह कोश्यारी से मदद मांगी। लेकिन भगतसिंह कोश्यारी ने कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि इलेक्शन कमिशन चुनाव को पूरी तरह स्थगित कर चुका था।
पीएम से मांगी मदद
इसके बाद उद्धव ठाकरे के पास सिर्फ एक ही रास्ता बचता था वह था प्रधानमंत्री से मदद मांगना। फिर उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री मोदी से फोन पर बात की। उनसे आग्रह किया कि वह मामले में हस्तक्षेप करें। इसके बाद प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद इलेक्शन कमीशन ने महाराष्ट्र के विधान परिषद की 9 खाली सीटों पर चुनाव कराने का फैसला लिया। इसके बाद उद्धव ठाकरे ने अपना पर्चा भरा और अंततः उद्धव ठाकरे विधान परिषद चुनाव में निर्विरोध निर्वाचित हुए और उसके बाद उद्धव ठाकरे की कुर्सी बची।