साल 2014 के मई महीने में नरेंद्र मोदी ने पहली बार पीएम के रूप में देश की सत्ता संभाली थी. उनके पहले कार्यकाल यानी पांच साल की छोटी अवधि में विदेश नीति में व्यापक बदलाव हुआ. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस क्षेत्र में जितने बड़े पैमाने पर एकडमिक लिटरेचर तैयार हुआ है, वह पिछले किसी भी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में नहीं हुआ था. यहां तक कि इस सरकार के आलोचक भी मानते हैं कि इसमें कोई शक नहीं है कि मोदी सरकार ने इन 9 सालों में विदेश नीति पर स्पष्ट छाप छोड़ी है और उसने भारत को दुनिया की बड़ी ताकत बनाने को लेकर अपने इरादे साफ कर दिए हैं.
साल 2021 में जहां एक तरफ पूरी दुनिया कोरोना की मार झेल रहा था वहीं दूसरी तरफ इजरायल (Israel) और फिलिस्तीन (Palestine) आमने सामने आ गए थे. ऐसे में कुछ देश गुटबंदी करने में लग गए और उन्होंने अपने-अपने सुविधानुसार समर्थन के लिए एक देश को चुन लिया. इन सब के बीच जिसपर पूरी दुनिया की नजर टिकी थी वह देश था भारत. फिलीस्तीन और भारत के रिश्ते शुरुआत से ही काफी बेहतर रहे हैं.
पिछले 9 सालों में मोदी ने वैश्विक व्यवस्था में भारत की भूमिका को बदलने की कोशिश की है. उन्होंने ऐसे संकेत दिए हैं कि भारत अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की प्राथमिकताओं को परिभाषित करने की इच्छा और योग्यता रखता है. भारत दुनिया में अपने लिए जो भूमिका चाहता है, उसे लेकर मोदी ने हिचक ख़त्म कर दी है. वह अपनी सभ्यता की ‘सॉफ्ट पावर’ की दावेदारी के लिए तैयार है. मोदी की इस पहल के बाद राजनयिक स्तर पर भारत का वैश्विक रसूख़ बढ़ाने की कोशिशें तेज़ हुईं. इसके साथ योग और अध्यात्म जैसी सॉफ्ट पावर और प्रवासी भारतीयों पर भी जोर दिया गया. यह बदलाव भारत के बढ़ते आत्मविश्वास का ही प्रतीक नहीं है बल्कि इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए नियम तय करने की भूमिका हासिल करने की महत्वाकांक्षा भी है. वह खुद को दूसरे देशों के बनाए नियम पर चलने वाले राष्ट्र के रूप में सीमित नहीं रखना चाहता. पहले भारत विदेश नीति को लेकर किसी भी तरह के जोखिम से बचता आया था, लेकिन अब वह अपनी नई भूमिका हासिल करने के लिए रिस्क उठाने को भी तैयार है. दशकों से हम एक सतर्क विदेश नीति पर चलते आए थे, लेकिन ‘ग्रेट पावर गेम’ में भारत तेज़ी से कदम बढ़ाने और बड़ी भूमिका पाने के लिए तैयार है.
जहां तक देश के सामरिक हितों का सवाल है, मोदी सरकार ने अपना अलग रास्ता बनाया है. वह दूसरे देशों के साथ साझेदारी बढ़ाकर इसे मज़बूत कर रही है न कि इससे पीछे हट रही है. इस मामले में सरकार को ख्य़ाल रखना होगा कि यह पहल गुटनिरपेक्ष नीति का जुड़वां न साबित हो क्योंकि तब और आज की दुनिया में ज़मीन-आसमान का अंतर है. मिसाल के लिए, भारत कथित ‘क्व़ॉड’ से संपर्क बढ़ाने के साथ चीन के मामले में अपने लिए अधिक स्वायत्तता की मांग कर रहा है. इसके साथ, जब भारत, रूस और चीन के साथ त्रिपक्षीय वार्ता कर रहा है तो वह ट्रंप सरकार के मामले में रणनीतिक स्वायत्तता को स्पष्ट कर रहा है. भारत ने यह रणनीति ग्लोबल इकोनॉमिक ऑर्डर के स्तंभों को चुनौती देने के लिए अपनाई है.
दो महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संगठनों — संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के साथ भारत के संबंधों का विश्लेषण आर्शी तिर्की ने किया है. वह कहती हैं कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार कमोबेश पिछली सरकारों की राह पर ही चल रही है और वह उसे उस एजेंडे को आगे ले जाने की कोशिश कर रही है. आर्शी का कहना है कि “भारतीय हितों की तरफ दुनिया का ध्यान खींचने में तो सरकार सफल रही है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के स्तर पर इन्हें हासिल करने के लिए अभी बहुत काम करने होंगे.” आखिरी चैप्टर में अपर्णा रॉय ने मोदी सरकार की क्लाइमेट चेंज पॉलिसी की चर्चा की है. वह कहती हैं कि 2017 के पेरिस समझौते से अमेरिका के पीछे हटने के बाद भारत इस मामले में दूसरे विकासशील देशों के लिए मिसाल बनकर उभरा है. भारत उनके सामने विकास संबंधी ज़रूतों के साथ पर्यावरण नीतियों के संतुलन का मानक पेश कर रहा है. अपर्णा का सुझाव है कि आने वाले वर्षों में भारत के सामने स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर संभावित जोखिम और नीतिगत ज़रूरतों को लेकर एक नया ख़ाका पेश करने का मौका है.