हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारणी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कई राजनीतिक दलों के अस्तित्व संकट को लेकर जो कहा, वह उचित ही हैं. यह एक ऐसा प्रासंगिक और गंभीर मुद्दा है जिस पर सभी राजनीतिक दलों को गहराई से मंथन करने की जरुरत हैं. अगर आज कुछ दलों को अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा हैं तो यह उनके लिए तो चिंता की बात है ही, लोकतान्त्रिक राजनीति के लिए भी अच्छा नहीं माना जा सकता. इसलिए प्रधानमंत्री ने कहा भी कि राजनीतिक दलों के सामने अपने को बचाने का संकट दूसरों के लिए कोई अच्छी, ख़ुशी की या हंसने की बात नहीं होनी चाहिए, बल्क़ि यह दूसरे सभी दलों के लिए भी चिंता और चिंतन का विषय होना चाहिए. अस्तित्व के संकट से जूझ रहे दलों से यह सीख लेने की जरुरत हैं कि आखिर ये इस हालत में पहुंचे क्यों? राजनीतिक दल चाहे ये राष्ट्रीय स्तर के हों या क्षेत्रीय स्तर के , अगर अपने भीतर की खामियों पर विचार कर उन्हें दूर करने की दिशा में नहीं बढ़ेगे तो यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए भी शुभ नहीं . देखने में आ रहा हैं कि पिछले कुछ सालों में तो कई राजनीतिक दल अपना जनाधार बचाने में नाकाम रहे. जाहिर हैं, इनमें वही दल ज्यादा हैं जो जनता की उम्मीद पर खरे नहीं उतरे .यह कहने की जरुरत नहीं कि पिछले कुछ वर्षोँ में भाजपा की लोकप्रियता और कामयाबी का ग्राफ जिस तेजी से बढ़ा है ,उसके पीछे सत्ता के साथ एक बड़ा कारण पार्टी का संगठन भी हैं. कोई भी पार्टी संगठन जनता के बीच पैठ तभी बना पता है जब उसके कार्यो को लेकर लोगों में भरोसा बनता हैं .केंद्र में दूसरी बार भी अगर भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन को लोगों ने सत्ता सौंपी तो जाहिर है, लोग उसके पिछले कार्यकाल में खुश रहे होंगे ! राज्यों के स्तर पर देखे तो उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और केरल के उदाहरण सामने हैं. जहाँ सरकार जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती, वहां जनता उसे बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं लगाती. पंजाब में सत्ता परिवर्तन इसका उदाहरण हैं. इसलिए अगर कोई राजनीतिक दल बहुमत के साथ पहली, दूसरी या तीसरी बार सत्ता में पहुँचता है, तो यह उसके लिए यही बड़ी उपलब्धि होती हैं. पर पिछले कुछ सालों पर नजर डाली जाए तो पाएगें कि जिन दलों ने चुनाव जीत कर पूर्ण बहुमत की सरकारें चलाई, वही आज सिमटते दिख रहे हैं या भाजपा जैसी व्यापक जनाधार वाली पार्टी को ही केरल, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना जैसे राज्यों में अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज करवाने के लिए कम पापड़ नहीं बेलने पड़ रहे. राजनीति में हार-जीत या सत्ता में आना -जाना चलता रहता हैं. यह कोई नई बात नहीं हैं. ऐसा भी नहीं है कि अगर कोई पार्टी एक बार सत्ता से बहार हो गई तो दोबारा सत्ता में नहीं पहुँच सकेगी. या जो पार्टी सत्ता में है , वह हमेशा बनी रहेगी. महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल चाहे वह सत्ता में हो या सत्ता से बाहर, वह ताकतवर कितना है , उसका जनाधार कितना मजबूत है . अगर राजनीतिक सशक्त होगें, तभी एक मजबूत विपक्ष संभव हो सकेगा. पिछले कुछ सालों में वंशवादी राजनीतिक संस्कृति ने कम नुकसान नहीं पहुँचाया है. कई दल अभी भी परिवारवाद और परिवार केन्द्रित राजनीति से मुक्त नहीं हो पाए हैं. जनता इसे देख और समझ रही हैं. ऐसे दलों को वंशवादी राजनीति से मुक्त होने की जरुरत है, तभी ये सशक्त बन सकेगें और राजनीति में रचनात्मक भूमिका निभा सकगें.
(लेखक के सभी विचार व्यक्तिगत हैं)