शेक्सपियर द्वारा रचित नाटक ‘जूलियस सीज़र‘ में एक दृश्य है जहाँ जूलियस सीज़र की मृत्यु के बाद उसका परम हितैषी एंटोनी जनता के बीच जाकर सीज़र के ओर इंगित करते हुए कहता है की, “The evil that men do lives after them; The good is oft interred with their bones” अर्थात मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके द्वारा किये गए बुरे काम जीवित रहते हैं लेकिन अच्छाई को अक्सर जिस्म के साथ साथ दफना या जला दिया जाता है. यह बात न केवल जूलियस सीज़र के लिए बल्कि हर उस व्यक्ति पर भी लागू होती है जिसने एक राजनितिक जीवन जिया है.
वास्तव में हमे राजनीती में कितने ऐसे उदहारण मिलते हैं जहाँ व्यक्ति के राजनैतिक परिदृश्य से हट जाने के बाद उसे उसके द्वारा किये गए अच्छे कामों के लिए याद किया जाए? हालाँकि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की नियति इससे जुदा है. उन्हें न केवल एक सफल प्रधानमंत्री के रूप में बल्कि एक सहज, संजीदा एवं नैतिक इंसान के रूप में भी पहचान मिली. 25th दिसंबर, 1924 को ग्वालियर में जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी को देशभर में जितना एक राजनेता के रूप में जाना जाता है उतना ही उनकी कविताओं से उनको पहचाना जाता है.
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
अपनी कविताओं से गूढ़ से गूढ़ बात कह देने वाले जिंदादिल शख्स आज अपना 93rd जन्मदिवस मना रहे हैं. जन की बात की टीम की ओर से उन्हें आज के दिन की हार्दिक शुभकामनायें.
इस मौके पर आइये जानते हैं उनसे जुड़े कुछ रोचक किस्से.
1- साल 1977, कांग्रेस की निरंकुशता वाली इमरजेंसी के दो साल पूरे होने के पश्च्यात चुनाव हुए जिसमे कांग्रेस की जबरदस्त पराजय हुई और देश में प्रथम बार जनता पार्टी की सरकार बनी और मोरारजी देसाई देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने. उनकी कैबिनेट में विदेश मंत्रालय का जिम्मा अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपा गया. वाजपेयी ने विदेश मंत्री के तौर पर संयुक्त राष्ट्रसंघ की ‘जनरल असेंबली’ में भारत की तरफ से हिंदी भाषा में भाषण दिया, यह पहला मौका था जब कोई भारतीय, संयुक्त राष्ट्रसंघ को हिंदी में सम्बोधित कर रहा था.
2- विदेश मंत्रालय का कार्यभार सँभालने के प्रथम दिन जब वह अपने कार्यालय पहुंचे तो वहां खाली दीवारों को देख कर चौंक गए और एक अधिकारी को पास बुलाकर पूछा, “इस दीवार पर तो पहले पंडितजी (जवाहरलाल नेहरू) की तस्वीर हुआ करती थी, वो कहाँ है?“. वह अधिकारी चुप रहा और कुछ जवाब न दे सका. दरअसल 1977 में जब कांग्रेस को जनता दल के हाथों पराजय मिली तो समस्त मंत्रालयों के अधिकारीयों ने कांग्रेस से जुडी हर चीज़ों को समस्त कार्यालयों एवं सरकारी दफ्तरों से हटा दिया, उसी कड़ी में नेहरू की तस्वीर भी हटा दी गयी. हालाँकि वाजपेयी को उस तस्वीर का वहां न होना बहुत खला और उन्होंने अपने सचिव से कहा, “मुझे याद है यहाँ पंडितजी की तस्वीर हुआ करती थी और मुझे वो तस्वीर वापस इस दीवार पर चाहिए“.
3- पार्लियामेंट में अटल बिहारी वाजपेयी और प्रधानमंत्री नेहरू के बीच वाद-विवाद बेहद सामान्य घटना थी, परस्पर संवाद के बीच अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर नेहरू की मौजूदगी में पार्लियामेंट में उनकी कड़ी से कड़ी आलोचना किया करते थे. लेकिन 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद, वाजपेयी उनके बारे में पार्लियामेंट में बोलने के लिए जब उठ खड़े हुए तो उन्होंने कुछ ऐसी बातें बोली जो इतिहास के पन्नों में कैद हो गई हैं. उन्होंने कहा, “पंडितजी के मृत्यु देश के लिए ऐसी हैं जैसे उसका कोई सपना अधूरा छूट गया हो, जैसे कोई गीत खामोश हो गया हो, उनकी मृत्यु केवल परिवार या किसी पार्टी के लिए ही क्षति नहीं है अपितु पूरे देश के लिए दुःख की बात है”. अपने जीवन में उन्होंने कई उतार चढ़ाव देखे, 1984 में इंदिरा गांधी की मृत्यु के पश्च्यात हुए आम चुनाव में भाजपा महज दो सीटें ही जीत पायी और वे खुद ग्वालियर से चुनाव हार गए. कोई नहीं जनता था की यही शख्स 14 साल बाद प्रधानमंत्री बनकर देश की प्रथम ५ वर्षीय गैर कांग्रेसी सरकार चलाएगा. हैरानी की बात है की जिस नेहरू के विषय में वो बोल रहे थे, उन्ही की बेटी इंदिरा गाँधी की सरकार ने 1975 में जब इमरजेंसी घोषित की तो अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार का खूब विरोध किया था और इसी विरोध के चलते उन्हें जेल तक जाना पड़ा था, हालाँकि उन्होंने हार नहीं मानी और सत्ता से संघर्ष करते रहे.4- एक और घटना का जिक्र किये बग़ैर हम अटल बिहारी वाजपेयी को समझ नहीं सकते. साल था 1996, तारीख 27 मई; वाजपेयी 13 दिन की भाजपा सरकार चलाने के बाद संसद में ‘कॉन्फिडेंस-मोशन’ की संध्या पर बोल रहे थे. उन्हें यह मालूम चल गया था की वो सरकार चलाने के लिए जरुरी बहुमत साबित नहीं कर पाएंगे इसलिए इस्तीफ़ा सौंपने से पहले उन्होंने कहा “हम मानते हैं की हम में कमी थी, हम सरकार बनाने जितनी जरुरी संख्या हासिल करने में नाकाम रहे हैं, हमे राष्ट्रपति ने मौका दिया की बहुमत साबित करके दिखाएँ लेकिन हम उसमे नाकाम रहे“. यह थे वाजपेयी, जिनमे हार मानने, उसकी जिम्मेदारी लेने और एक मजबूत विपक्ष के रूप में बैठने का हिम्मत एवं जज़्बा था. हार को जिस सादगी से उन्होंने माना, वह ऐतिहासिक था. उन्होंने उसी भाषण में आगे यह भी कहा, “हम संख्या बल के सामने सर झुकाते हैं, और जो कार्य अपने हाथ में लिया है वो जबतक राष्ट्रउद्देष्य के रूप में पूरा नहीं करलेते, चैन से नहीं बैठेंगे. और हम विपक्ष में बैठ कर यह भी देखेंगे की हमारे बाद किस प्रकार के समीकरणों के साथ सरकार बनती है क्यूंकि मेरा मानना है की जो भी सरकार बनेगी उसके अस्थिर होने के बहुत आसार हैं“. उनकी यह भविष्यवाणी सही साबित हुई और वाजपेयी की सरकार गिर जाने के पश्च्यात भारत ने अगले दो वर्ष (1996-1998) में यूनाइटेड फ्रंट के नेतृत्व में दो बार सरकारें बदलती देखीं, एक बार एच. डी. देवेगौडा तो दूसरी बार इंद्रा कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने (दोनों ही बार कांग्रेस को सरकार का बहरी समर्थन प्राप्त था).
5- कहते हैं, दुनिया के किस कोने में क्या चल रहा है इस विषय में संयुक्त राज्य अमेरिका के स्पाई एजेंसी सी. आई. ऐ. (Central Intelligence Agency) को खबर रहती है लेकिन भारत द्वारा पोखरण में दिनांक 01 एवं 11 मई 1998 में न्यक्लिअर परीक्षण करवाए और इस घटना ने भारत को एक विश्व शक्ति के रूप में पहचान दी.
6- हाल ही में जम्मू और कश्मीर की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ़्ती ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कश्मीर के मसले पर ‘वाजपेयी डॉक्ट्रिन‘ के हिसाब से चलने की सलाह दी. दरअसल अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर की ओर अपने रुख को साफ़ करते हुए हमेशा कहा था की पकिस्तान के साथ सम्बन्ध मधुर होने चाहिए और इसे ही ‘वाजपेयी डॉक्ट्रिन के रूप में जाना जाता है.अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर में शांति, प्रगति एवं समृद्धि को बढ़ावा देने के लिए कश्मीर में इंसानियत, जमूहरियत एवं कश्मीरियत की भावना पर चलने की सलाह दी थी. इसी कड़ी में जब वो एक दफे पाकिस्तान में थे तो उन्होंने एक बेहद ही भावुक व्यख्यान दिया, जिसके समाप्त होते ही तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने अटल बिहारी वाजपेयी से उनके भाषण की तारीफ करते हुए कहा की, “ऐसे भाषणों से आप पाकिस्तान में भी चुनाव जीत सकते हैं“. अटल बिहारी वाजपेयी देश के बहुमूल्य रत्न हैं जिन्हे सन 2015 में भारत रत्न से सम्मानित भी किया गया, देश उनके कार्यों की वजह से बहुत तरक्की कर पाया. उन्हें कभी सत्ता लुट जाने का भय नहीं था, उन्होंने विपक्ष में बैठने से कभी मुहं नहीं मोड़ा और अपने राजनैतिक यात्रा को ससम्मान 2009 में समाप्त करदिया. यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी की वो देश के सर्वश्रेठ प्रधानमंत्रियों में से एक हैं. वह फिलहाल लखनऊ में कृष्णा मेनोन मार्ग स्थित अपने सरकारी आवास में रहते हैं और वृद्धावस्था के कारण काफी हद तक अपनी स्मृति खो चुके हैं
यह स्टोरी स्पर्श उपाध्याय ने की है