निस्संदेह, आस्था व्यक्ति का निजी मामला है। उसका सम्मान होना होना लाजिमी है। लेकिन हमें समाज को जागरूक बनाने की जरूरत है कि किसी मुद्दे पर असहमति का विरोध लोकतांत्रिक तरीके से किया जाना चाहिए। विरोध करना चाहिए लेकिन संवैधानिक दायरे में ही। हाल के दिनों मे कुछ विवादास्पद बयानों के बाद देश के कई राज्यों में भडकी हिंसा हमारी गंभीर चिंता का विषय है।निस्संदेह, इस संकट के मूल में निहित स्वार्थी तत्वों ने आग में घी डालने का काम किया है जिसके मूल में राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता। कई देशी-विदेशी ताकतें हमारे विकास के इरादों पर पानी फेरने को तैयार बैठी होती हैं। ऐसे मामलों में शासन की सख्ती अपनी जगह है लेकिन ऐसे संवेदनशील मुद्दों को रचनात्मक नजरिये से भी सुलझाना चाहिए। निस्संदेह, आस्था से जुडे प्रतिरोध राष्ट्र से बडे नहीं हो सकते । हमें न्यायिक व्यवस्था में भी विश्वास करना चाहिए। लेकिन इसके अतिरिक्त सत्तातंत्र को भी अपनी विश्वनीयता बरकरार रखनी चाहिए ताकि आक्रोश को काबू में किया जा सके। यह विडंबना ही है कि ऐसे समय में जब देश कोरोना संकट से उपजे जख्मों से उबरने की कोशिश में है और रूस- यूक्रेन युद्ध से बाधित विश्व आपूर्ति श्रृंखला में मंहगाई की त्रासदी समाने है, हम धार्मिक मुद्दों के विवाद में देश को हिंसा की आग में झोंक दें। ऐसे टकराव व हिंसा से अंतत आम आदमी को कीमत चुकानी पडती है। खासकर उस वर्ग को जो रोज कमाकर दो जून की रोटी का जुगाड करता हैं। यह वर्ग ज्यादा संवेदनशील होता है और जल्दी प्रतिक्रिया देकर आत्मघाती कदम उठाने से नहीं चूकता। हिंसा नें जो सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान होता है उसकी कीमत भी आम आदमी को चुकानी पडती है। यह विडंबना ही है कि 21वीं सदी में हम सोलहवीं सदी जैसे धार्मिक टकरावों में उलझे हैं जिसकी कीमत आखिरकार हमें ही चुकानी पडती हैं । इसमें दो राय नहीं कि किसी विवाद में संवाद व सहमति की राह पत्थरबाजी से कोई समाधान संभव नहीं है। सभी समुदायों के जिम्मेदार लोगों की ओर से आग भडकाने के बजाय रचनात्मक पहल के जरिये विवाद का पटाक्षेप करने का प्रयास होना चाहिए। अन्यथा देश व समाज में अस्थिरता का वातावरण विकसित होगा। हमारे समाज में तर्कशीलता के अभाव में शरारती तत्व ऐसे विवाद को अपने खतरनाक मंसूबों के अवसर में बदल देते हैं। यदि समाज विवेकशील हो तो असमाजिक तत्वों को ऐसे विवादों का लाभ उठाने का अवसर नहीं मिल पायेगा। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि सभी धर्मों में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो ऐसे मौकों को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के अवसर के रूप में देखते हैं । जिसके चलते उन्मादी लोग हिंसक भीड के रूप में सामने आते हैं। बहुत संभव है कि इसके मूल में कुछ लोगों का असुरक्षाबोध भी हो। साथ ही विभिन्न मुद्दों को लेकर पैदा आक्रोश इस हिंसक विरोध को विस्तार देता हो। ऐसे में इस बात का पता लगाना भी जरूरी है कि इस भीड को हिंसक बनाने में किन तत्वों की भूमिका रही हैं ।
० लेखक के सभी विचार व्यक्तिगत हैं