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गठबंधन : चुनावी मौसम में मजबूरी वाला साथ

नई दिल्ली:

“यह गठबंधन महज चुनावी है और इसकी समय सीमा 23 मई तक ही निर्धारित है। रिजल्ट आने के बाद यह गठबंधन भी टूट जाएगा, क्योंकि एक गठबंधन कुछ दिन पहले विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ था”। यह शब्द प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव 2019 के परिणाम आने के महीनों पहले एक चुनावी सभा में कहा था।
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में दो सबसे बड़े दल हैं। उत्तर प्रदेश का चुनाव कहीं ना कहीं इन्हीं दोनों पार्टियों के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। खासकर विधानसभा चुनाव में इन दोनों दलों की प्राथमिकता रहती है। लेकिन राजनीति में नरेंद्र मोदी का चैप्टर शामिल होने के बाद कई सारे बदलाव आ गए। जहां पूरे भारत में मोदी लहर 2014 से ही बन गई, वहीं उत्तर प्रदेश में भी इन दोनों दलों से उलट लोगों ने भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी को पसंद किया। फिर चाहे वह 2014 का लोकसभा चुनाव हो या 2017 के विधान सभा चुनाव का परिणाम रहा हो।

वोट बैंक की राजनीति

बहुजन समाज पार्टी का गठन दलित समाज के उत्थान को लेकर हुआ था. मायावती दलितों की सबसे बड़ी नेता बनकर सामने आई और उन्होंने दलितों के उत्थान का बीड़ा उठाया. लेकिन जैसे-जैसे समय बदलता रहा दलित वहीं के वहीं रह गए पर मायावती कई बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री तक बन गई.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में दूसरा चेहरा मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी समाजवादी पार्टी का है. मुलायम सिंह यादव भी समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए उत्तर प्रदेश की राजनीति में उतरे और सफल भी हुए. इन दिनों पार्टी की कमान उनके सुपुत्र अखिलेश यादव के हाथों में है. समाजवादी पार्टी भी यादव और मुस्लिम वोट बैंक के दम पर अपना दबदबा कायम रखती है.

लेकिन इन सब में समस्या तब आई जब 2014 के चुनाव में जात पात से हटकर लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एकतरफा वोट देकर उत्तर प्रदेश में एनडीए को 73 सीटें जिता दी. इसके बाद कई राजनीतिक पंडितों ने यह अनुमान लगाया कि शायद अब देश की राजनीति बदल रही है और इसका जीता जागता नमूना 2017 के विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिला. जहां भारतीय जनता पार्टी ने 300 से अधिक सीटें जीतकर उत्तर प्रदेश में वापसी की.

गठबंधन की मजबूरी

गठबंधन

पार्टी के वर्चस्व को अगर ध्यान में रखा जाए तो दोनों पार्टियां अपने आप में दमखम रखती हैं। लेकिन जब सामने नरेंद्र मोदी जैसा चेहरा हो तो इनमें भी अपने अस्तित्व को लेकर डर सताने लगता है। ऐसा ही हुआ उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साथ।
जो दोनों पार्टियां एक दूसरे की राजनीतिक प्रतिद्वंदी हुआ करती थी। उन्होंने साथ में आकर चुनाव लड़ने का फैसला किया। इसके बाद पूरे देश में यह लहर उठी कि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में औंधे मुंह गिर जाएगी। क्योंकि जातिगत रूप से उत्तर प्रदेश की 50 से अधिक लोकसभा सीटों पर इन दोनों पार्टियों का दबदबा है। लेकिन यह गठबंधन सिर्फ ऊपरी स्तर पर ही था, जहां दोनों पार्टियों की जमीनी नेता कई जगहों पर आपस में आज भी एक दूसरे के खिलाफ खड़े हुए थे।

बिन मुद्दे का चुनाव

एक तरफ अपनी राजनीतिक सभाओं में प्रधानमंत्री सरकार के कामकाज को गिना रहे थे। वहीं दूसरी तरफ अन्य दल सिर्फ अपने गठबंधन की मजबूती और कुछ ऐसे मुद्दों को उछाल रहे थे जिनका लोगों से सीधा वास्ता नहीं था। गठबंधन के नेता आपस में एक दूसरे से ही तालमेल नहीं बिठा पाए। ऐसे में जनता तक अपनी बात पहुंचाना आसान काम नहीं था। वहीं दूसरी तरफ गठबंधन के नेता किसी एक मुद्दे को इस हद तक नहीं हवा दे पाए कि उसका असर नरेंद्र मोदी सरकार और वोट पर पड़े।

2022 की रेस

गठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी तो यह थी कि 2022 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा! क्योंकि विधानसभा चुनाव के लिए दोनों पार्टियां अकेले बहुमत लाकर सरकार बनाने का दमखम रखती हैं। ऐसे में उस समय यह गठबंधन एक दूसरे के लिए गले की हड्डी साबित होता। समाजवादी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने पहले ही इस गठबंधन के ना होने का सुझाव दिया था।

मुस्लिम वोट का लालच

यादव और दलित समाज के बाद मुस्लिम समाज पर भी इन पार्टियों की नजर बनी हुई थी। जहां जमीनी स्तर पर समाजवादी पार्टी को मुस्लिम मतदाता पहली पसंद मान रहे थे। लेकिन गठबंधन होने के बाद मुस्लिम मतदाताओं के लिए कांग्रेस पार्टी का रास्ता भी खुल गया था। ऐसे में उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता गठबंधन और कांग्रेस में बंटते हुए नजर आए।

प्रधानमंत्री पद और दावेदार

भारतीय जनता पार्टी में पहले से ही यह निर्धारित था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही बनेंगे। लेकिन दूसरी तरफ गठबंधन में सब कोई अपने आप को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान रहा था। उत्तर प्रदेश में मायावती भी एक दो बार यह बयान दे चुकी थी कि वह प्रधानमंत्री की रेस में है। वहीं कांग्रेस पार्टी से राहुल गांधी और अन्य पार्टियों के भी नेता प्रधानमंत्री पद के लिए अपने आप को दावेदार मान रहे थे। ऐसे में विपक्षी दलों के अंदर की इस फूट का सीधा फायदा नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को मिला।

कोर वोट में ढ़ीली पकड़

बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी दोनों ने अपने कोर वोट में ही पकड़ ढीली कर दी। जहां यादव समाज तो समाजवादी पार्टी के साथ था, लेकिन बहुजन समाज पार्टी का दलित समाज भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में बंटता हुआ दिख रहा था। भारतीय जनता पार्टी का कामकाज और सरकारी योजनाओं ने दलित समाज के साथ-साथ हर तबके के लोगों को भारतीय जनता पार्टी की तरफ खींच लिया।

परिणाम के बाद राम-राम

महासमर 2022

इन्हीं सब पहलुओं का नतीजा रहा कि भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर उत्तर प्रदेश में 62 लोकसभा सीटें जीतकर अपना दबदबा कायम रखा। बहुजन समाज पार्टी को इस चुनाव में 10 सीटों का फायदा हुआ और दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। समाजवादी पार्टी महज 5 सीटों पर सिमट कर रह गई। चुनावी परिणाम के बाद एक दूसरे के ऊपर आरोप प्रत्यारोप लगने लगे. जिसकी शुरुआत बसपा की मुखिया मायावती ने की। इसके बाद यह साफ हो गया कि गठबंधन आगे तक नहीं चलने वाला। अब इंतजार है 2022 के चुनाव का, जहां उत्तर प्रदेश में चार अलग-अलग दलों के बीच मुख्य लड़ाई होगी। इनमें भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी शामिल है।

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